जानिए भगवान के 22 वां और 23वां महावातर के बारे में :-
दो अवतार मिसिंग :
धर्मग्रन्थों के अनुसार कल्कि अवतार 24 वां अवतार हैं ; लेकिन श्रीमदभागवतम महा पुराण के अनुसार 22 वां अवतार कल्कि अवतार हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार भगवान विष्णु के अवतारों का वर्णन हुआ है। भागवत महापुराण के तीसरे स्कंध (अध्याय 1, श्लोक 24-28) और अन्य स्कंधों में 24 अवतारों का उल्लेख किया गया है।
ये अवतार इस प्रकार हैं:
1. सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार (चारों ऋषि)
2. वराह अवतार
3. नारद मुनि
4. नर-नारायण ऋषि
5. कपिल मुनि
6. दत्तात्रेय
7. यज्ञ अवतार
8. ऋषभदेव
9. पृथु महाराज
10. मत्स्य अवतार
11. कूर्म अवतार
12. धनवंतरि
13. मोहिनी अवतार
14. नरसिंह अवतार
15. वामन अवतार
16. परशुराम
17. व्यासदेव
18. रामचंद्र
19. बलराम
20. कृष्ण
21. बुद्ध अवतार
22. कल्कि अवतार
दो अवतार मिसिंग:-
धर्मग्रंथों में अवतारों की गणना और उनकी संख्या को लेकर विभिन्न विवरण मिलते हैं। श्रीमद्भागवतम महापुराण के अनुसार, भगवान विष्णु के अवतारों की सूची में कल्कि अवतार को 22वां अवतार कहा गया है।
श्रीमद्भागवतम में वर्णित अवतार:
श्रीमद्भागवतम (भाग 1, अध्याय 3) में भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों का उल्लेख किया गया है, जिनमें 22 अवतारों की चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि ये अवतार समय-समय पर धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए प्रकट होते हैं।
24 अवतार की परंपरा:
कई अन्य धर्मग्रंथों और परंपराओं में भगवान विष्णु के 24 अवतारों का उल्लेख मिलता है। इन 24 अवतारों में से दस अवतार (दशावतार) प्रमुख माने गए हैं।
कल्कि अवतार की स्थिति: कल्कि अवतार को विष्णु का अंतिम अवतार माना गया है, जो कलियुग के अंत में प्रकट होंगे। वे अधर्म और पाप का नाश करके सत्ययुग की स्थापना करेंगे।
ऋग्वेद के अनुसार:
अब प्रश्न यह उठता है कि ऋग्वेद के अनुसार ईश्वर के आत्मा के एक भाग से सारी सृष्टि की रचना हुई और तीन भाग अंतरिक्ष में ही रह गया। तो अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर के आत्मा के तीन भाग का क्या होगा ?
ऋग्वेद के अनुसार, ईश्वर की आत्मा या परम तत्व का वर्णन अत्यंत गूढ़ और गहराई से किया गया है। ऋग्वेद के 10वें मंडल के पुरुष सूक्त 10.90 में कहा गया है कि परम पुरुष (परमात्मा) का केवल एक भाग इस भौतिक जगत की सृष्टि में प्रकट होता है, जबकि उनके तीन भाग आध्यात्मिक क्षेत्र या उच्चतर लोकों में ही स्थित रहते हैं। इस रहस्यात्मक वर्णन का तात्पर्य ईश्वर की महानता और उनकी सृष्टि की सीमाओं को समझाने के लिए किया गया है।
ऋग्वेद 10.90.3 यह कहता है कि :
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवात्पुनः
अर्थात परम पुरुष के तीन भाग दिव्य लोकों में स्थित हैं, और उनका एक भाग सृष्टि के रूप में प्रकट हुआ।
अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर के आत्मा के तीन भाग का क्या होगा ?
ऋग्वेद का यह श्लोक सांकेतिक रूप से परमात्मा के असीम स्वरूप को समझाने का प्रयास है। उनके तीन भाग दिव्य और शाश्वत हैं, जो मानव बोध और भौतिक सृष्टि से परे हैं। इसे समझने के लिए निम्नलिखित दृष्टिकोण दिए जा सकते हैं:
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1. दिव्यता और शाश्वतता
ईश्वर के आत्मा के तीन भाग उनके शुद्ध और शाश्वत स्वरूप को दर्शाते हैं। यह वह क्षेत्र है जो भौतिक संसार की सीमाओं, समय और स्थान से परे है। ये तीन भाग परमात्मा के उस स्वरूप को इंगित करते हैं जो:
• अविनाशी और शाश्वत है।
• भौतिक रचनाओं में सीमित नहीं है।
• सदा-सर्वदा एक ही स्थिति में रहता है।
यह त्रिगुणातीत, निर्विकार और अद्वितीय है।
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2. तीनों भाग का स्वरूप
ऋग्वेद में स्पष्टता से इन तीन भागों का भौतिक विवरण नहीं दिया गया है, लेकिन भारतीय दर्शन में इन्हें आध्यात्मिक स्तर पर समझाया गया है:
• परम चेतना: ईश्वर का एक भाग सृष्टि का आधार है और इसे “परम चेतना” या “ब्रह्म” कहा गया है।
• परम ज्ञान: दूसरा भाग ईश्वर का शुद्ध ज्ञान स्वरूप है, जो सृष्टि की संरचना और संचालन का ज्ञान रखता है।
• परम आनंद: तीसरा भाग ईश्वर का शाश्वत आनंद है, जो सभी जीवों के अनुभव से परे है।
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3. योग और उपनिषदों का दृष्टिकोण
उपनिषदों और योग दर्शन के अनुसार, ये तीन भाग परमात्मा की सर्वव्यापकता को दर्शाते हैं:
• विराट स्वरूप (भौतिक जगत): यह वह भाग है जो सृष्टि के रूप में प्रकट हुआ।
• हिरण्यगर्भ (सूक्ष्म जगत): यह वह भाग है जो सृष्टि के आधारभूत सिद्धांतों का संचालन करता है।
• अव्यक्त (अधिभौतिक लोक): यह वह भाग है जो अव्यक्त और अपार है, सृष्टि से परे है।
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4. भक्ति और अद्वैत दर्शन:-
भक्ति दर्शन के अनुसार, तीन भाग ईश्वर के असीम प्रेम, अनुग्रह और करुणा का प्रतीक हैं, जो उनकी अखंडित स्थिति में रहते हैं।
अद्वैत वेदांत में इसे ब्रह्म का “सच्चिदानंद स्वरूप” कहा गया है:
• सत (अस्तित्व): जो सदा विद्यमान है।
• चित (चेतना): जो पूर्ण ज्ञान स्वरूप है।
• आनंद (आनंद): जो परम आनंद स्वरूप है।
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निष्कर्ष :-
ऋग्वेद का यह कथन बताता है कि ईश्वर असीम हैं, और उनकी आत्मा का केवल एक भाग सृष्टि में प्रकट होता है। उनके तीन भाग शाश्वत, दिव्य और अपार क्षेत्रों में स्थित रहते हैं। यह रहस्य हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि ईश्वर के स्वरूप को भौतिक बुद्धि से समझना असंभव है। ईश्वर के तीन भाग उनकी अनंतता और अपार शक्ति के प्रतीक हैं, जो सृष्टि से परे हैं और हर चीज का आधार हैं।
गीता के अनुसार सत, चित और आनंद :
सत, चित और आनंद भारतीय दर्शन में ब्रह्म (परमात्मा) के तीन शाश्वत गुणों का वर्णन है। इसे अद्वैत वेदांत, उपनिषदों और भगवद्गीता के संदेशों में गहराई से समझाया गया है। भगवद्गीता में “सत-चित-आनंद” का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है, लेकिन इसके गुणों को विभिन्न श्लोकों में वर्णित किया गया है। यह आत्मा और ब्रह्म के स्वरूप को समझाने का एक मार्ग है।
1. सत (अस्तित्व):-
सत का अर्थ है “शाश्वत सत्य” या “जो सदा विद्यमान है।” यह ब्रह्म का वह गुण है जो न कभी नष्ट होता है, न परिवर्तित। यह आत्मा और ब्रह्म के नित्य स्वरूप को दर्शाता है।
• गीता में संबंध:
गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अविनाशी, अजर-अमर और शाश्वत बताया है।
o गीता अध्याय 2 का श्लोक 16 के अनुसार :
o “असत्य (अस्थायी) का कोई अस्तित्व नहीं है और सत्य (शाश्वत) का कभी नाश नहीं होता।”
o आत्मा और ब्रह्म सत्य के प्रतीक हैं, क्योंकि वे परिवर्तन और मृत्यु से परे हैं।
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2. चित (चेतना):-
चित का अर्थ है “शुद्ध चेतना” या “ज्ञान का स्वरूप।” यह आत्मा का वह गुण है, जिससे वह स्वयं और अन्य सभी चीजों को जानने और समझने में सक्षम है।
• गीता में संबंध:
गीता में आत्मा को ज्ञान और प्रकाश का स्रोत बताया गया है। आत्मा के चेतना स्वरूप को सृष्टि की हर वस्तु में व्याप्त कहा गया है।
o गीता अध्याय 13 का श्लोक 2 के अनुसार :
“हे भारत (अर्जुन), सभी क्षेत्रों (शरीरों) में आत्मा को जानने वाला (चित) मैं ही हूं।”
o यह ब्रह्म की चेतना है जो हर जीव और सृष्टि में क्रियाशील है।
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3. आनंद (परम सुख):-
आनंद का अर्थ है “परम सुख” या “शाश्वत आनंद।” यह आत्मा या ब्रह्म का वह गुण है, जो उसे सभी प्रकार के दुख और अशांति से परे शाश्वत संतोष में स्थित करता है।
• गीता में संबंध:
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो आत्मा के स्वरूप को जान लेता है और ब्रह्म के साथ एकता अनुभव करता है, वह परम आनंद प्राप्त करता है।
o गीता अध्याय 6 का श्लोक 21 के अनुसार :
“जो सुख आत्मा के भीतर अनुभव होता है और जो इंद्रियों से परे है, वही वास्तविक आनंद है।”
o यह आनंद भौतिक सुखों से अलग है, क्योंकि यह शाश्वत और अविनाशी है।
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सत-चित-आनंद का गीता में एकीकृत दृष्टिकोण
गीता का मुख्य संदेश यह है कि आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप सत-चित-आनंद है। जब व्यक्ति आत्मा को समझता है, तो वह इन तीन गुणों को अनुभव करता है:
1. सत: सृष्टि और आत्मा का अविनाशी और शाश्वत अस्तित्व।
2. चित: ज्ञान और चेतना का दिव्य स्वरूप।
3. आनंद: आत्मा के साथ एकत्व से प्राप्त होने वाला परम सुख।
निष्कर्ष:-
भगवद्गीता का संदेश हमें यह समझाने का प्रयास करता है कि आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप शाश्वत है। जो व्यक्ति आत्मा के ज्ञान को प्राप्त करता है और ब्रह्म के साथ अपनी एकता को अनुभव करता है, वह सत-चित-आनंद में स्थित हो जाता है। यह केवल भौतिक सुखों से परे शाश्वत शांति और संतोष की अवस्था है।
ईश्वर पुत्र आदिश्री अरुण का दृष्टिकोण :
जब भगवान् के सभी अवतार धरती पर धर्म को चारों चरण में स्थापित करने में असफल हो जायेंगे तब जो ईश्वर के आत्मा का तीन भाग अंतरिक्ष में शेष बच गया था वही ईश्वर मनुष्य का रूप रच कर धरती पर आएंगे और धरती पर धर्म को चारों चरण में स्थापित करेंगे।
अब ऋग्वेद में वर्णित सत , चित और आनंद का रहस्य समझिये :
कलियुग में धरती पर तीन अवतार को आना था :
(1 ) 22 वां अवतार प्रभु इशू का दुबारा आगमन (2 ) 23 वां अवतार ईश्वर पुत्र आदिश्री अरुण का आगमन और (3 ) 24 वां अवतार भगवान् कल्कि जी का आगमन।
(1) सत (अस्तित्व): जो सदा विद्यमान है। जोअस्तित्व में है तथा सदा विद्यमान है वह भगवान विष्णु हैं और उन्हीं का अवतार हैं 24 वां अवतार जिनका नाम भगवान श्री कल्कि है ।
(2) चित (चेतना): जो पूर्ण ज्ञान स्वरूप है। जो ईश्वर का शुद्ध ज्ञान स्वरूप है, जो सृष्टि की संरचना और संचालन का ज्ञान रखता है वह हैं प्रभु ईशू।
धर्मशास्त्र, कुलुस्शियो अध्याय 1 का श्लोक 15 और 16 में यह कहा गया है कि पुत्र तो अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप और सारी सृष्टि में पहिलौठा है। क्योंकि उसी से सारी वस्तु की सृष्टि हुई, स्वर्ग की हो अथवा पृथ्वी की देखी या अन देखी क्या सिंहासन,क्या प्रभुताएं, क्या प्रधानताएं क्या अधिकार सारी वस्तुएं उसी के द्वारा और उसी के द्वारा और उसी के लिए सृजी गई है, और वही सब वस्तुओं में प्रथम है और सब वस्तुएं उसी में प्रथम है, और सब वस्तुएं उसी में स्थिर रखती है।
यहां पोलुस यीशु की भूमिका का जिक्र करते हैं। सृष्टि की रचना में की ब्रह्मांड यीशु के माध्यम से बनाया गया था। धर्मशास्त्र, कुलुसीयो अध्याय 1 का श्लोक 15 और 16 में एक छिपी हुई जानकारी है जो सबसे अधिक आकर्षक है। प्रभु यीशु ने ब्रह्मांड और स्वर्ग में सिंहासन, अधिकार, शासन और प्रभुताएं बनाई। तो यह वचन वास्तव में कहता है कि यीशु ने स्वर्गदूतों को बनाया वे उनके द्वारा और उनके लिए बनाए गये ,तो अगर हम सृष्टि से पहले हुई घटनाओं को इन वचनों के आधार पर एक साथ मिलाकर समझे तो हमें यह मिलता है ज्ञान का स्रोत परमेश्वर है और परमेश्वर यीशु है तो ज्ञान का स्रोत भी यीशु है और परमेश्वर जो यीशु भी है पहले ज्ञान और बुद्धि को रचा। इसी ईश्वर को दुबारा लौट कर आना था।
(3) आनंद : जो परम आनंद स्वरूप है वही ईश्वर का शाश्वत आनंद है और यह सभी जीवों के अनुभव से परे है। यही 23 वां अवतार है
जिसका नाम ईश्वर पुत्र आदिश्री अरुण है।